शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

देर-सबेर

नियति ने किसी व्यक्ति के लिए क्या तय कर रखा है इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। इस बात का बांग्ला लेखक शंकर से बेहतर उदाहरण शायद दूसरा नहीं है। लगभग 47 वर्ष पहले लिखा गया उनका बहुचर्चित उपन्यास चौरंगी इन दिनों लंदन बुक फेयर में धूम मचा रहा है। सन 1962 में शंकर ने इस उपन्यास का कथानक अपने गृह नगर कोलकाता में स्थित एक होटल पर रचा था और इस उपन्यास ने धूम मचा दी थी। इसकी हजारों हजार प्रतियां भारत और बांग्लादेश में बिकीं। दर्जनों भाषाओं में अनुदित इस उपन्यास पर एक फिल्म का निर्माण भी हुआ जिसे बांग्ला की क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है। शंकर का असली नाम मणिशंकर मुखर्जी है। लंदन में चल रहे पुस्तक मेले में उनके नाम की जबरदस्त चर्चा है। जहां एक तरफ विद्वान उनके उपन्यास की चर्चा कर रहे हैं, वहीं समीक्षक उसकी तारीफ कर रहे हैं। पुस्तकों को खरीदने के लिए पाठकों की भीड उमड रही है। इतने वर्षो बाद मिली सराहना को लेकर 75 वर्षीय शंकर निश्चित रूप से बेहद प्रसन्न हैं क्योंकि भारत में अपनी इन तमाम सफलताओं के बावजूद वह अभी तक पश्चिमी मुल्कों में लगभग गुमनाम थे। शंकर ने कहा कि पिछले 47 वर्षो तक मैं बंगाली स्वाभिमान में ही जी रहा था। मेरा कहना था, वे मेरे पास आएं, मैं उनके यहां नहीं जाने वाला।
(ख़बर स्रोत http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/?page=slideshow&articleid=2103&category=7 --------------------------------
दोस्तों,
आज भी ऐसे लोग है जो नाम या दाम के लिए स्वाभिमान से समझौता नही करते। जो समझते है की कागजी फूलो को ही बनावटी रंगों और खुशबू की जरुरत होती है। कुदरती तो यूँ ही महका करते है।
आखिरकार शंकर दा का ज़ज्बा ही जीता।
इस ज़ज्बे को सलाम ।
-आज भी

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