शुक्रवार, 1 मई 2009

गुजरात:रिसता जख्म


2002 के गुजरात दंगों ने इंसान और हैवान का फर्क मिटा दिया। सड़कों पर जमकर बहा बेकसूरों का खून और हजारों घर बर्बाद हो गए। लेकिन सुलगता हुआ ये सवाल आज भी जिंदा है कि क्या ये महज दो समुदायों के लोगों का टकराव था या फिर राज्य सरकार से जुड़े लोगों की साजिश का हिस्सा।
अगर उस वक्त के अहमदाबाद पुलिस के तत्कालीन मुखिया की बातों पर यकीन करें तो ये शक और भी पुख्ता हो जाता है कि दंगों पर काबू पाया जा सकता था अगर सरकार चाहती तो। सरकार से जुड़े कुछ लोगों ने न सिर्फ लोगों को भड़काया, बल्कि खुद कई जगहों पर हमलावरों का नेतृत्व भी किया। ऐसे में पुलिस के सामने अपनी आंखें बंद के अलावा और कोई चारा ही नहीं था।
क्योंकि दरिंदों की अगुवाई कर रहे थे बीजेपी और तमाम हिंदुवादी संगठनों के कुछ नेता। अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर पी सी पांडे की दंगों के दौर में लिखी 2 चिठ्ठियां इन तमाम बातों को बयां करती हैं। पांडे का खत गुजरात पुलिस की मजबूरी भी बयां करता है।
कमिश्नर पीसी पांडे ने 19 अप्रैल 2002 को पहली चिठ्ठी लिखी गुजरात के पुलिस महानिदेशक को। डीजीपी को लिखी इस चिठ्ठी से ये साफ हो जाता है सरकार के तत्कालीन मंत्री भारत बरोट कैसे भीड़ को दंगों के लिए भड़काने का काम कर रहे थे।
इस चिठ्ठी के मिलने के बाद पांच लोगों को गिरफ्तार भी किया गया लेकिन उन्हें जल्द ही जमानत मिल गई। तीन दिन बाद एक बार फिर बजरंग दल के कार्यकर्ताओं की करतूत कमिश्नर पीसी पांडे की नजरों में आई जिसके बाद उन्होंने इस बार डीजीपी का भरोसा छोड़ सीधे 22 अप्रैल 2002 को गुजरात के अतिरिक्त मुख्य सचिव अशोक नारायण को एक पत्र लिखा।
http://khabar.josh18.com/news/12309/1 (साभार)

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